Who Is Krishan : जानिए कौन है श्रीकृष्ण एवं उनकी कितनी पत्नियाँ थी कृष्ण निष्काम कर्मयोगी, आदर्श दार्शनिक, स्थितप्रज्ञ एवं दैवी संपदाओं से सुसज्जित महापुरुष थे,उनका जन्म द्वापर युग में हुआ था,उनको इस युग के सर्वश्रेष्ठ पुरुष, युगपुरुष या युगावतार का स्थान दिया गया है। कृष्ण” संस्कृत शब्द है, जो “काला”, “अंधेरा” या “गहरा नीला” का समानार्थी है। “अंधकार” शब्द से इसका सम्बन्ध ढलते चंद्रमा के समय को कृष्ण पक्ष कहे जाने में भी स्पष्ट झलकता है। कृष्ण का अनुवाद कहीं-कहीं “अति-आकर्षक” के रूप में भी किया गया है,
भागवत पुराण में कृष्ण की आठ पत्नियों का वर्णन है,—-“रुक्मिणी, सत्यभामा,जामवंती,कालिंदी, मित्रवृंदा, नाग्नजिती (जिसे सत्या भी कहा जाता है),भद्रा,लक्ष्मणा (जिसे मद्रा भी कहते हैं),आठों पत्नियां उनके अलग पहलू को दर्शाती हैं। भगवान् श्रीकृष्णजी की आठ पटरानियाँ सहित सोलह हजार एक सौ आठ रानियों के साथ जो आदर्श गृहस्थी हैं, वे अलौकिक तत्वों से भरी हैं। इसे बिना भक्तवत्सल श्रीकृष्ण के कृपा के बिना जानना दुर्लभ हैं।
Krishan Ji की पत्नियाँ
इस अलौकिक तत्व को जिसने भी जाना वह भगवान् श्रीकृष्ण के कृपा से भक्तिरस के माध्यम से ही जान पाया हैं, जिसका वर्णन श्रीमद्भागवत, जो परमहंसों की संहिता है, जिसकी कथा भी परमहंसशिरोमणि शुकदेवजीजी ने अपने मुख्य श्रोता राजर्षि परीक्षितजी से उस समय कहते हैं, जब मुख्य श्रोता मरण के समीप में हैं। व्यासजी की वाणी दिव्य हैंहैं, जिसमें थोड़ा भाव प्रकट हैं, और थोड़ा भाव छिपे हैंहैं, ईश्वर कृपा से यदि मानव अपनी बुद्धि का थोड़ा उपयोग करता है तो दिव्य भाव को प्रकट कर पाता हैं।
श्रीशुकदेवजी साधारण वर-कन्या के लग्न की कथा नहीं कहे हैं, ये कथा तो – दिव्य रहस्यों से भरा है, जो जीव- ईश्वर की लग्न की कथा है, “अष्टधा प्रकृति ही श्रीकृष्ण की आठ पटरानियाँ हैं,ये अष्टधा प्रकृति –
“भूमिरापोऽनलो वायुः खं मनो बुद्धिरेव च।
अहङ्कार इतीयं मे भिन्ना प्रकृतिरष्टधा।।”
पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश, मन, बुद्धि और अहंकार,क्षपरमात्मा जगत में आते हैं, तब ये अष्टधा प्रकृति ही आठों पटरानियों के रूप में भगवान् की सेवा में उपस्थित होती हैं।
भगवान श्रीकृष्ण की आठ पटरानियाँ थी, अष्टधा प्रकृति ही आठ पटरानियाँ हैं। ईश्वर इन सभी प्रकृतियों के स्वामी हैं, ये प्रकृतियाँ परमात्मा की सेवा करती हैं ,जीव प्रकृति के अधीन है, ईश्वर प्रकृति के अधीन नहीं हैं। जीव अष्टधा प्रकृति के वश मे आ जाता है ,जबकि ईश्वर उनको अपने वश मे करते हैं।प्रकृति अर्थात् स्वभाव ,स्वभाव के अधीन होने के बदले स्वभाव को प्रकृति को वशीभूत करने वाला जीव सुखी हो जाता है,मुक्त हो जाता है। प्रकृति और प्राण साथ साथ ही जाते हैं । फिर भी यदि जप , ध्यान , सेवा , स्मरण , सत्संग . सत्कर्म किया जाय , सद्ग्रन्थों का अध्ययन किया जाय तो स्वभाव सुधर सकता है, सत्संग का अर्थ है —–कृष्ण भक्तो का , साधु सन्तो का और सद्ग्रन्थ का संग, सत्संग और भक्ति दोनों एक दूसरे पूरक है ।सत्संग करने वाला यदि परमात्मा का भजन नहीं करेगा तो उसका सत्संग निरर्थक ही रहेगा।
पत्थर नर्मदा जी में हमेशा स्नान करता रहता है फिर भी वह पत्थर ही बना रहता है,इसी प्रकार कई मनुष्य कथा श्रवण तो करते हैं किन्तु भक्तिमय न हो पाने के उनका जीवन सुधर नहीं पाता है ।
पहले अपने मन को सुधारो फिर जगत को सुधारो,अपने चारित्र्य से यदि अपनी आत्मा को सन्तोष मिले तभी मानो कि तुम्हारा स्वभाव सुधरा है।
श्रीकृष्ण का पहला विवाह “रुक्मिणी” के साथ, दूसरा विवाह “सत्यभामा” के साथ,तीसरा “जाम्बवती”,चोथा “यमुनाजी”,पांचवा “मित्रवृंदा”,छठ्ठा “लक्ष्मणा जी”,सातवाँ “नाग्नजिती” और आँठवा “भद्रा” के साथ हुआ है।
इस तरह आठ विवाह हुए है,भगवान की आठ पटरानियाँ थी, अष्टधा प्रकृति ही आठ पटरानियाँ है। ईश्वर इन सभी प्रकृतियों के स्वामी है। ये प्रकृतियाँ परमात्मा की सेवा करती है। प्रकृति ईश्वर के आधीन है, जब जीव प्रकृति का आधीन बनता है तब वह बंधन में आता है।
प्रकृति अर्थात स्वभाव तुम स्वभाव के अधीन होने बदले स्वभाव को ही आधीन कर लो,श्रीकृष्ण के आठ सिद्धातों के रूप को उनकी पत्नियां कहा गया है यानि उन्होंने इन आठ पत्नियों से विवाह किया था, जोकि वास्तव में जीवन में अपनाए गए उनके आठ सिद्धांत थे।
समुद्र—राजा भीष्मक है।
उसकी पुत्री है लक्ष्मी — स्वर्ण लक्ष्मी रुक्मिणी।
उसका भाई विष है — रुक्मी,वह रुक्मिणी एवं रुक्मिणी बल्लभ श्रीकृष्ण के सम्बन्ध मे बाधक है, रुक्मिणी- श्रीकृष्ण का विवाह तीन प्रकार से हुआ —-
प्रथम प्रेम सन्देश के द्वारा गान्धर्व विवाह।
द्वितीय अपहरण के द्वारा राक्षस विवाह।
तृतीय विधि-विधान पूर्वक शास्त्रीय विवाह।
सारे प्रतिबन्ध मिटाकर श्रीकृष्ण ने रुक्मिणी को स्वीकार किया।
वैप्णवी शक्ति ” लक्ष्मी” रुक्मिणी है, सौरी शक्ति “सावित्री ” सत्यभामा है, ब्राह्मी शक्ति “ब्रह्माणी” जाम्बवती है, इस प्रकार तीनों शक्तियों के वास्तविक अन्तर्यामी स्वामी श्रीकृष्ण ही हैं।
कालिन्दी “आत्मबोध” स्वरुपा है,मित्रविन्दा “तपस्या” रुपा हैं, “नाग्नजिती” (सत्या) एवं भद्रा “योगरुपा” हैं,लक्ष्मणा “भक्ति” रुपा है।
ये पाँचो विद्या की पाँच वृत्तियाँ है,अविद्या की निवृत्ति के लिए इनकी आवश्यकता होती है,इनके स्वामी भी श्रीकृष्ण ही है।
आध्यात्मिक मन और आधिदैविक चन्द्रमा ,इन दोनों की भी सोलह-सोलह कलाएँ हैं,षोडश सहस्र पत्नियां आधिभौतिक हैं,श्रीकृष्ण के बिना इनकी कोई अन्य गति नहीं है,एक – एक कला के सहस्र-सहस्र अंश हैं ।
अतः इनकी संख्या सोलह हजार कही गयी है,सोलह हजार संख्या केवल उपलक्षण मात्र है,क्योंकि संसार में—
जितनी वस्तुएं (आधिभौतिक) हैं।
जितनी वृत्तियाँ (आध्यात्मिक)हैं।
उनके जितने देवता(आधिदैविक) हैं, सबके परमपति भगवान श्रीकृष्ण ही हैं।
अतः जो सर्वेश्वर है,मायापति है,उसके लिए सोलह सहस्र पत्नियों का पति कहना कोई बहुत बड़ी बात नहीं है, सोलह हजार कन्याएँ वेदों की ऋचाएँ हैं।
वेद के तीन काण्ड और एक लाख मन्त्र हैं ——-
- कर्मकाण्ड — इसके अस्सी हजार मन्त्र है जो ब्रह्मचारियों के लिए है।
- उपासना काण्ड —-इसके सोलह हजार मन्त्र हैं,जो गृहस्थों के लिए है।
- ज्ञानकाण्ड —– इसके चार हजार मन्त्र हैं,जो सन्यासियों के लिए है।
वेद-मंत्रों को भौमासुर ने कारागृह में रखा था,वेदान्त का ज्ञान विरक्त के लिए है,विलासी के लिए नहीं,विलासी उपनिषद् का तत्वज्ञान समझ नहीं पाता किन्तु भागवत तो सभी के लिए है।
वेदों ने ईश्वर के स्वरुप का वर्णन तो किया किन्तु उनको पा न सके सो वेदों की ऋचाएं कन्या बनकर श्रीकृष्ण से विवाह करने आयीं।
वेदों के मन्त्र केवल शब्दरुप नहीं है, बल्कि प्रत्येक मन्त्र ऋषि हैं देव हैं। वेदमन्त्र के देव तपश्चर्या करके थक हार गये फिर भी ब्रह्म सम्बन्ध नहीं हो पाया सो कन्या का रुप लेकर आये,वेद की ऋचाएँ कन्या बनकर प्रभू सेवा करने आयीं।
गृहस्थाश्रम धर्म का वर्णन वेद के सोलह हजार मन्त्रों में किया गया है सो श्रीकृष्ण की सोलह हजार रानियाँ कही गयी हैं,श्रीकृष्ण ने सोलह हजार कन्याओं को मुक्त तो किया किन्तु वे सब भौमासुर के कारागृह में बन्द थीं सो जगत का कोई पुरुष उनसे विवाह करने के लिए तैयार नहीं हुआ, वे सभी कन्याएँ श्रीकृष्ण की शरण में आयीं।
श्रीकृष्ण ने उन सभी कन्याओं के साथ विवाह कर लिया।
विलासी भौमासुर ने कन्याओं को बन्दी बनाया अर्थात् अनधिकारी कामी व्यक्ति ने मन्त्रों का अनर्थ किया था।
भौम का अर्थ है— “शरीर” अर्थात शरीर के साथ खेलने में जिसे आनंद मिलता है वह कामी जीव यानि भौमासुर।
विलासी जीव ही भौमासुर है,भौमासुर ने सोलह हजार कन्याओं को बन्दी बनाया था।
कामी व्यक्ति मन्त्र का अपने विलासी मन की पुष्टि के लिए विकृत अर्थ करता है,ऐसे व्यक्ति मंत्रो का दुरुपयोग करते हैं।
वेद का तात्पर्य भोग में नही त्याग में है,वेद को भोग नहीं,त्याग ही इष्ट है,वेदों का तात्पर्य भोगपरक नहीं,निवृतिपरक है,प्रवृत्तियों को एक साथ छोड़ा तो नहीं जा सकता किन्तु कुछ भी करें धर्म की मर्यादा मे रहकर करें। धर्म की मर्यादा में रहकर ही अर्थोपार्जन एवं कामोपभोग करें,वेद कहते हैं कि भोगों को धीरे धीरे कम करते हुए संयम को बढ़ाओ,वेदों ने प्रवृत्ति और निवृत्ति दोनों की चर्चा की है किन्तु निर्देश निवृत्ति का ही है।
गीता में मुख्य अनासक्ति का ही उपदेश है,फिर भी लोग अपना अर्थ बताते रहते है। कोई गीता को कर्मप्रधान बताता है,कोई भक्तिप्रधान,तो कोई ज्ञानप्रधान को बताता है। वैसे तो गीता में तीनो का प्राधान्य है।
शंकराचार्य ने कहा है कि चित्त शुद्धि के लिए कर्म आवश्यक है। चित्त की एकाग्रता के लिए उपासना आवश्यक है। भक्तिपूर्वक कर्म से चित्त एकाग्र होगा। भक्ति,उपासना मन को एकाग्र करती है। ईश्वर में मन एकाग्र होगा तो ज्ञान अवश्य मिलेगा। ज्ञान,परमात्मा का अनुभव कराता है। गीता में कर्म,भक्ति और ज्ञान तीनों का समन्वय है।
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